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International Journal of Political Science and Governance
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P-ISSN: 2664-6021, E-ISSN: 2664-603X, Impact Factor (RJIF): 5.92
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2025, Vol. 7, Issue 8, Part C

डॉ. अंबेडकर के सामाजिक चिंतन: न्याय, समता और जाति विमर्श का विश्लेषण


Author(s): डॉ. महेश कुमार

Abstract:
भारतीय समाज एक ऐतिहासिक रूप से जटिल, बहुस्तरीय और गहराई से जातिगत ढाँचों में रचा-बसा हुआ समाज है। इसकी सामाजिक संरचना ने न केवल मनुष्य को जन्म के आधार पर विभाजित किया है, बल्कि उसे शोषण, अपमान और वंचना के कठोर दायरे में भी बाँध दिया है। इस व्यवस्था की आलोचना और उसके विरुद्ध संघर्ष करने वालों में डॉ. भीमराव अंबेडकर का स्थान सर्वोपरि है। वे न केवल भारत के संविधान निर्माता के रूप में जाने जाते हैं, बल्कि एक क्रांतिकारी समाजशास्त्री, मानवाधिकार समर्थक और सामाजिक न्याय के अनन्य प्रवक्ता के रूप में भी पहचाने जाते हैं। डॉ. अंबेडकर का सामाजिक चिंतन उस युग में सामने आया जब भारतीय समाज जातिगत उत्पीड़न, छुआछूत, स्त्री-विमर्श और आर्थिक विषमता जैसे मुद्दों से जूझ रहा था। उन्होंने इन प्रश्नों को केवल नैतिक या धार्मिक समस्या नहीं माना, बल्कि उन्हें एक गहरी सामाजिक संरचना का परिणाम बताया। उनका मानना था कि जातिवाद भारतीय समाज की आत्मा में बैठा हुआ है, और जब तक इसे जड़ से समाप्त नहीं किया जाएगा, तब तक सच्चा लोकतंत्र, स्वतंत्रता और समानता स्थापित नहीं हो सकती।
डॉ. अंबेडकर के सामाजिक विचारों की मूल भावना तीन मूलभूत तत्वों न्याय, समता और बंधुत्व में समाहित है। उन्होंने जाति व्यवस्था की कठोर आलोचना करते हुए कहा था कि जाति केवल सामाजिक असमानता का प्रतीक नहीं है, बल्कि यह मनुष्य की गरिमा के विरुद्ध सबसे बड़ा षड्यंत्र है। उन्होंने अपने प्रसिद्ध लेख जाति का उन्मूलन में जाति-प्रथा को समाप्त करने का आह्वान किया और इसे भारतीय समाज के पुनर्निर्माण की पूर्वशर्त बताया। डॉ. अंबेडकर का सामाजिक चिंतन केवल नकारात्मक आलोचना तक सीमित नहीं था, बल्कि उसमें एक सृजनात्मक दृष्टिकोण भी विद्यमान था। उन्होंने बौद्ध धर्म को अपनाकर एक नैतिक और समतामूलक वैकल्पिक धार्मिक परिपाटी प्रस्तुत की, जो शोषणविहीन समाज की स्थापना की दिशा में एक ठोस प्रयास था। उनके लिए धर्म का उद्देश्य सामाजिक समानता, नैतिक अनुशासन और करुणा पर आधारित होना चाहिए न कि वर्ण और जाति पर आधारित ऊँच-नीच को बढ़ावा देना।
वर्तमान समय में जब सामाजिक न्याय, दलित अधिकार, स्त्री मुक्ति और आर्थिक समानता जैसे विषय फिर से केंद्र में हैं, डॉ. अंबेडकर के विचार पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक हो गए हैं। उनका चिंतन न केवल सामाजिक आंदोलनों को प्रेरणा देता है, बल्कि नीतिगत निर्णयों और संवैधानिक व्याख्याओं को भी दिशा प्रदान करता है। यह लेख डॉ. अंबेडकर के सामाजिक चिंतन का व्यापक विश्लेषण प्रस्तुत करता है, जिसमें उनके दृष्टिकोण की दार्शनिक गहराई, सामाजिक सरोकार और वैचारिक सुसंगतता को उद्घाटित करने का प्रयास किया गया है। इसमें यह भी बताया गया है कि उन्होंने किस प्रकार सामाजिक विषमता के खिलाफ न केवल विचारों के स्तर पर बल्कि व्यवहारिक और राजनैतिक स्तर पर भी संघर्ष किया। उनके चिंतन की यह विशेषता है कि वह केवल दलितों की मुक्ति तक सीमित नहीं है, बल्कि समस्त भारतीय समाज को एक समावेशी, न्यायपूर्ण और समानाधिकार आधारित व्यवस्था की ओर उन्मुख करने का प्रयास करता है।



DOI: 10.33545/26646021.2025.v7.i8c.642

Pages: 202-206 | Views: 72 | Downloads: 4

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How to cite this article:
डॉ. महेश कुमार. डॉ. अंबेडकर के सामाजिक चिंतन: न्याय, समता और जाति विमर्श का विश्लेषण. Int J Political Sci Governance 2025;7(8):202-206. DOI: 10.33545/26646021.2025.v7.i8c.642
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