पंडित दीनदयाल उपाध्याय के मानववाद की अवधारणा का विश्लेषण
Author(s): डॉ. सुनील कुमार पंडित
Abstract: पंडित दीनदयाल उपाध्याय भारतीय राजनीतिक विचारधारा के एक ऐसे प्रखर और मौलिक चिंतक थे, जिन्होंने आधुनिक भारत की समस्याओं का समाधान भारतीय संस्कृति, अध्यात्म और सामाजिक यथार्थ के समन्वय से खोजने का प्रयास किया। उन्होंने "एकात्म मानववाद" के रूप में एक वैकल्पिक विचारधारा प्रस्तुत की, जो न केवल राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्र में, बल्कि सामाजिक और नैतिक जीवन में भी संतुलन की आवश्यकता को रेखांकित करती है। यह विचारधारा न तो पाश्चात्य पूंजीवाद की भांति केवल भौतिक लाभ और उपभोग की स्वतंत्रता पर आधारित है, और न ही साम्यवाद की तरह वर्ग संघर्ष और जबरन समानता के नाम पर व्यक्ति की स्वतंत्रता का दमन करने वाली है। उपाध्याय जी का मानना था कि भारत जैसे सांस्कृतिक राष्ट्र को अपनी नीतियों और दर्शन के लिए पश्चिम की नकल नहीं करनी चाहिए, बल्कि अपनी परंपराओं, मूल्यों, और सामाजिक संरचना को ध्यान में रखते हुए ही किसी भी विकास की योजना बनानी चाहिए। उन्होंने 1965 में भारतीय जनसंघ के वैचारिक अधिवेशन में "एकात्म मानववाद" को औपचारिक रूप से प्रस्तुत किया, जिसमें यह स्पष्ट किया गया कि मनुष्य केवल एक आर्थिक प्राणी नहीं, बल्कि शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा से युक्त एक समग्र सत्ता है। इसीलिए उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति केवल आर्थिक संसाधनों से नहीं, बल्कि मानसिक, बौद्धिक और आत्मिक संतुलन से ही संभव है। उनका मानना था कि राष्ट्र कोई भौगोलिक सत्ता नहीं, बल्कि एक जीवंत सांस्कृतिक इकाई है, जिसमें समाज के सभी वर्ग शरीर के विभिन्न अंगों की तरह होते हैं और इन सबके बीच सामंजस्य अनिवार्य है। उपाध्याय जी ने स्पष्ट कहा कि पूंजीवाद के कारण सामाजिक विषमता और उपभोक्तावाद बढ़ता है, जबकि साम्यवाद में व्यक्ति की स्वतंत्रता और धर्म का दमन होता है। उन्होंने एकात्म मानववाद को एक ऐसा माध्यम बताया जो राष्ट्र और व्यक्ति, परंपरा और आधुनिकता, स्वतंत्रता और अनुशासन के बीच संतुलन स्थापित करता है। उन्होंने स्वदेशी अर्थनीति की वकालत की, जिसमें स्थानीय संसाधनों, श्रम और संस्कृति के अनुरूप विकास की कल्पना की गई है। उनके दर्शन में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष – इन चार पुरुषार्थों के समन्वित विकास पर बल दिया गया है, जिससे व्यक्ति और समाज दोनों का सर्वांगीण विकास संभव हो सके। आज जब वैश्वीकरण, उपभोक्तावाद और नैतिक संकट के चलते समाज दिशाहीनता का अनुभव कर रहा है, एकात्म मानववाद न केवल भारत को, बल्कि संपूर्ण विश्व को एक ऐसा जीवनदर्शन प्रदान करता है जो न केवल विकास की बात करता है, बल्कि उस विकास को नैतिकता, सांस्कृतिक चेतना और आत्मिक उन्नति से जोड़ता है। आत्मनिर्भर भारत, ग्राम स्वराज, शिक्षा, रोजगार, महिला सशक्तिकरण, और सांस्कृतिक पुनर्जागरण जैसे विषयों में यह दर्शन आज भी प्रासंगिक है और भारत के लिए एक सांस्कृतिक राष्ट्र की अवधारणा को जीवन्त रूप से स्थापित करता है। अतः यह कहना अनुचित न होगा कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय का "एकात्म मानववाद" केवल एक राजनीतिक सिद्धांत नहीं, बल्कि भारत की आत्मा से उपजा एक ऐसा समग्र जीवनदर्शन है, जो मनुष्य, समाज और राष्ट्र की एकता, गरिमा और समरसता को सर्वोपरि मानता है।
DOI: 10.33545/26646021.2025.v7.i8c.641Pages: 197-201 | Views: 64 | Downloads: 2Download Full Article: Click Here
How to cite this article:
डॉ. सुनील कुमार पंडित.
पंडित दीनदयाल उपाध्याय के मानववाद की अवधारणा का विश्लेषण. Int J Political Sci Governance 2025;7(8):197-201. DOI:
10.33545/26646021.2025.v7.i8c.641