पूँजीवादी व्यवस्था ने पूरी दुनिया में गरीबी मिटाने का सपना दिखाया, कुछ सीमा तक यह सफल भी रहा। परन्तु इस व्यवस्था ने दुनियाभर में आर्थिक असंतुलन को जन्म दिया है। किसी भी व्यवस्था की प्राथमिक लक्ष्य बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति करना होता है। परन्तु तमाम दावों के बावजूद यह व्यवस्था भूख के प्रति भय को समाप्त नहीं कर पाया। पेट भरने के लिए दुनियाभर से पलायन जारी है। वैश्वीकरण ने दुनिया भर में कृत्रिम विकास का डंका बजाया है, हर तरफ, हर दिन विकास की बातें होती है, मगर यह विकास तब तक अधूरा समझा जाएगा, जब तक उसका लाभ हर जगह और हर किसी तक नहीं पहुँचता।
वैश्विक प्रतिस्पर्धा वाले माहौल ने जीवन के नैसर्गिक सुखों को भी छीन लिया है। प्रकृति के साथ उचित संतुलन नहीं हो पाने के कारण प्रदूषित वातावरण में रोगग्रस्त जीवन जीने के लिए विवश है। आखिर ऐसी केन्द्रीकृत व्यवस्था की क्या उपयोगिता रह गई है जो न उचित शिक्षा, स्वास्थ्य और रोटी उपलब्ध करा सकती है न ही एक शांतिपूर्ण विश्व की गारंटी ही दे सकती है। वैश्विक उथल-पुथल के बीच भारत को भी एक वैकल्पिक व्यवस्था के बारे में विचार करने की जरूरत है। इसमें लोहिया का समाजवाद, गाँधी के ग्राम-स्वराज एवं औद्योगीकरण का एक मिला-जुला माॅडल वैकल्कि माॅडल साबित हो सकता है।’’