विश्वविद्यालय स्तर पर छात्राओं में लैगिंक चेतना का स्तर
Author(s): डाॅ. प्रियंका पाण्डे
Abstract: मानव-मानव के बीच विभिन्न प्रकार के भेदभाव ने सदैव मानव विकास और उन्नति की राह में बाधा ही उत्पन्न की है। वह चाहे जातिगत भेद भाव हो अथवा लैंगिक अथवा नस्लीय । लैंगिक भेदभाव मानवीय भेदभावों में एक गूढ़ एवं चरम भेदभाव की श्रेणी में आता है। महिला व पुरूष के बीच जो भी शारीरिक भिन्नता है। वह प्राकृतिक है, यानि जैवकीय है। इस भिन्नता को लैगिंक भिन्नता कहा जाता है। हमारा समाज व संस्कृति और परिवेश लैगिंक चेतना की भूमिका तय करता है। हम बचपन से ही समाज व संस्कृति के जरिए न केवल भूमिकाओं का निर्वाह करते है, बल्कि आत्मसात भी करते है। लैगिंक चेतना का तात्पर्य व्यवहार परिवर्तन स्ंवय व विपरीत लिंग के प्रति हमारी परम्परागत सोच में बदलाव स्थापित करना है। इसके माध्यम से व्यक्तियों को स्ंवय के विचारों, विश्वासों में मूल्यांकन का अवसर प्राप्त होता है। लैगिंक संवेदनशील व्यक्ति अन्य लिंग के प्रति न केवल व्यवहार के नए तरीके अपनाता है। अपितु यह संवेदनशीलता उसको लैगिंक मुदों पर स्ंवय के विचारों, विश्वासों व मूल्यों पर प्रश्नचिह्न लगाने हेतु भी सक्षम बनाती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार लैंगिक संवेदनशीलता से तात्पर्य महिला-पुरूषों के बेहतर स्वास्थ्य हेतु शोध नीतियों एंव ऐसे कार्यक्रमों के माध्यम से जागरूकता का निर्माण एंव विकास करना जो उनके मध्य समानता की भावना विकसित कर सके। लैगिंक समानता के सिद्धांत को भारतीय संविधान की प्रस्तावना, मौलिक अधिकार, मौलिक कर्तव्य तथा नीति निर्देशक सिद्वातों में भी जोड़ा गया है। वैश्विक लैगिंक अंतराल सूचकांक 2022 में भारत 146 देशों मे 135ं स्थान पर रहा। इससे साफ तौर पर अदांजा लगाया जा सकता है कि हमारे देश में लैगिंक भेदभाव की जड़े कितनी मजबूत और गहरी है।
डाॅ. प्रियंका पाण्डे. विश्वविद्यालय स्तर पर छात्राओं में लैगिंक चेतना का स्तर. Int J Political Sci Governance 2024;6(1):201-203. DOI: 10.33545/26646021.2024.v6.i1c.325