Abstract: सैद्धांतिक रूप में भारत का संविधान इसके सभी नागरिकों को वे समस्त लोकतांत्रिक अधिकार देता है जो किसी उदार लोकतंत्र में अपेक्षित होते हैं । यद्यपि अधिकारों की उपलब्धता तथा उसकी उपादेयता के मध्य जिस प्रकार का द्वंद्व है उसकी परिणति भारत में निरंतर सामाजिक, सांस्कृतिक, भाषायी, पांथिक, जातीय एवं जातिगत संघर्षों की उपस्थिति के रूप में दिखाई देती है । इसी प्रकार का एक संघर्ष भारतीय राज्य तथा भारतीय समाज की परिधि पर खड़े आदिवासी समाज के मध्य देखा जा सकता है । जिनकी मांग है कि भारत के समस्त प्रकृति-पूजक आदिवासियों को एक पृथक ‘सरना धर्म’ के रूप में मान्यता दी जाए । दूर से इस संघर्ष की प्रकृति वैसे तो जातीय तथा पांथिक अधिक दिखाई देती है । परंतु नजदीक से देखने पर यह संघर्ष अस्मिता एवं आत्मनिर्णय के अधिकार के लिए राज्य से सीधा संवाद करता दिखाई देता है, जिससे इस समाज की समस्त माँगें तथा अपेक्षाएँ है । दूसरी ओर गैर-राजकीय तत्व भी हैं जो अपनी वैचारिक प्रतिबद्धताओं के वशीभूत होकर इनकी पसंद-नापसंद जाने बिना इन्हें अपने पाले में करने को आतुर दिखाई दे रहे हैं ।