Abstract:भारतीय संस्कृति एवं सामाजिक व्यवस्था प्रारम्भ से ही वर्गों में विभाजित रही है। कर्म प्रधान ‘वर्ण व्यवस्था’ पर आधारित समतामूलक समाज समय के साथ जन्म आधारित ‘जातिवाद’ का रूप ग्रहण करनें के साथ-साथ ‘जातीय श्रेष्ठता’, ‘सामाजिक असमानता’ एवं ‘छुआछूत’ जैसी बुराइयों को आत्मसात् करता गया, जिसके उन्मूलन हेतु भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के समानान्तर विभिन्न आन्दोलन चलाये गये। किन्तु भारतीय राजनीतिक व्यवस्था के अन्तर्गत ‘परम्परावादी भारतीय समाज में आधुनिक राजनीतिक संस्थाओं की स्थापना के प्रयत्न’ के फलस्वरूप जातियों के राजनीतिकरण को अधिक बल मिला। इसी कड़ी में स्वतंत्रता पूर्व ही जाति आधारित विभिन्न संगठनों यथा- ब्राह्मण सभा, कुर्मी संगठन, जाट सभा, बहिष्कृत हितकारिणी सभा आदि स्थापित की गयी। स्वतंत्रता उपरान्त भारतीय राजनीति में ‘राष्ट्रवाद’ एवं ‘लोक-कल्याण’ के प्रभाव में ‘जातिवादी भावना’ कुछ समय के लिए शिथिल तो हो गयी किन्तु आगे चलकर छोटी जातियों की उम्मीदें क्षीण हानें के साथ-साथ पिछड़े, दलित एवं उपेक्षित वर्गों में ‘राजनीतिक चेतना’, ‘नेतृत्व क्षमता’ एवं ‘सŸाा की आकांक्षा’ भी विकसित हुयी। ऐसी स्थिति में राजनीतिक दलों द्वारा प्रमुख जातियों को ‘वोट बैंक’ के रूप में इस्तेमाल एवं ‘तुष्टीकरण की राजनीति’ प्रारम्भ हुई। राजनीतिक संक्रमण के दौर में जाति आधारित विभिन्न राजनीतिक दलों- बहुजन समाज पार्टी (बसपा), समाजवादी पार्टी (सपा), राष्ट्रीय जनता दल आदि का उदय हुआ। उŸार प्रदेश में बसपा व सपा जाति आधारित बड़े दलों में से हैं। सामान्यतः भारतीय लोकतंत्र में जातियाँ चुनाव प्रचार के साधन के रूप में, समाज में श्रेष्ठता सिद्ध करने के रूप में तथा दबाव समूह की भूमिका में देखी जाती हंै। जहाँ ‘विविधता में एकता’ को भारतीय संघ की ख्ूाबसूरती के रूप में देखा जाता है तो वहीं ‘जातिवाद’ भारतीय समाज में एक विकलांगता की तरह है जो भारतीय राष्ट्रवाद की सबसे कमजोर कड़ी में से है।